पूरी दुनिया में लगभग एक स्वर से उपन्यास को साहित्य की सबसे सक्षम, प्रासंगिक
और लोकप्रिय साहित्य-विधा के रूप में स्वीकार किया गया है। हिंदी में भी
उपन्यास को आधुनिक विश्व की संरचना और आधुनिक मनुष्य के भाव-लोक और विचार-लोक
को उसकी जटिलता और समग्रता में अभिव्यक्त करने में सबसे समर्थ और प्रासंगिक
साहित्यिक विधा के रूप में पहचाना गया है। विश्व-साहित्य के साथ-साथ हिंदी
साहित्य में भी एक केंद्रीय गद्य-विधा के रूप में उपन्यास की उपस्थिति इस
मान्यता को तर्कसम्मत और उचित सिद्ध करती है।
यूरोप और अमेरिका में जिस मात्रा में उपन्यास रचनात्मकता के केंद्र में आ रहा
था उसी मात्रा में वहाँ साहित्य-सिद्धांत और साहित्यशास्त्र तथा साहित्यिक
आलोचना काव्य-केंद्रित से उपन्यास-केंद्रित होती गई लेकिन, हिंदी में ये
अभी-भी काव्य-केंद्रित ही है। हिंदी में उपन्यास भले ही केंद्रीय और लोकप्रिय
विधा हो गया है लेकिन हिंदी आलोचना और साहित्य-सिद्धांत अभी-भी कविता के ही
आस-पास तैयार किए जा रहे हैं। हिंदी में एक आलोचक के रूप में स्वीकृत होने के
लिए केवल उपन्यास का आलोचक होना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मृतप्राय और
अलोकप्रिय हो चुकी कविता पर आलोचना लिखकर ही आलोचक के रूप में स्वीकृत हुआ जा
सकता है। इस रूढ़ि के कारण हिंदी में उपन्यास-आलोचना की न कोई परंपरा स्थापित
हो पाई है और न ही कोई सिद्धांत बन पाया है। उपन्यास पर भले ही भारतेंदु-युग
के लेखकों से लेकर अब तक के लेखक लिखते आ रहे हैं। आलोचकों के पास काव्यालोचना
और समाज विज्ञान के सिद्धांतों के पिष्टपेषण के बाद जो समय बचता उसमें वे
हिंदी के चुनिंदा श्रेष्ठ उपन्यासों की समीक्षा करते रहे हैं। इस तरह कुछ ही
उपन्यासों पर सारी आलोचना और विमर्श होते रहे। हिंदी के विशाल उपन्यास-साहित्य
का अधिकांश आलोचकों की कृपा नहीं प्राप्त कर सका। इससे हिंदी उपन्यास-साहित्य
की गहराई और विस्तार, इतिहास और भूगोल, सिद्धांत और व्यवहार में रुचि रखने
वाले आलोचना के पाठक को सिवाय उलझाव और बिगूचन के कुछ और नहीं मिला। इससे
हिंदी उपन्यास पर आधारित आलोचना और विमर्श की देशी सैद्धांतिकी के विकास की
संभावनाएँ भी सिर्फ संभावनाएँ बनकर रह गईं। परिणामस्वरूप उपन्यास के दर्शन और
उपन्यास की सैद्धांतिकी और विमर्श को जानने-समझने के उत्सुक पाठकों और
विद्वानों के लिए हिंदी में कोई स्तरीय और मौलिक सामग्री दुर्लभ है।
हिंदी में उपन्यास आलोचना के नाम पर जो कुछ उपलब्ध है उसकी विडंबना यह है कि
उसमें उपन्यास को जाने बिना ही हिंदी उपन्यास को जानने की कोशिश की गई है। जिन
आलोचकों ने उपन्यास-आलोचनाएँ प्रस्तुत की हैं उनमें से अधिकांश ने मौलिक ढंग
से सोचने की बजाय यूरोप, रूस, अमेरिका तथा अन्य देशों के विद्वानों की
स्थापनाओं को कभी ससंदर्भ और कभी बिना संदर्भ के हिंदी में उल्थाकर हिंदी
पाठकों की अपढ़ता का लाभ उठाते हुए छात्रोपयोगी सामग्री ही तैयार की है। जो भी
हो, हिंदी में उपन्यास-विमर्श के परिदृश्य को देखते हुए इस तरह के प्रयासों की
सराहना ही करनी चाहिए। इन आलोचकों की आलोचना करके इन्हें खारिज करने के स्थान
पर इन्हें ध्यान से पढ़ते हुए इनके कामों से सीखते हुए हिंदी में
उपन्यास-आलोचना को सुदृढ़ करना चाहिए।
इन आलोचकों में मैनेजर पांडेय का नाम अग्रगण्य है। मैनेजर पांडेय ऐसे आलोचक
हैं जिन्होंने उपन्यास-आलोचना को गंभीरता से लिया है। यद्यपि कि
उपन्यास-आलोचना उनकी आलोचना और विशेषज्ञता का मुख्य क्षेत्र नहीं है फिर भी
उन्होंने उपन्यास पर उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने उपन्यास को समझने-समझाने
की दिशा में प्रामाणिक और गंभीर प्रयास किया है। जिस पर ध्यान देने की जरूरत
है। इस लेख में मैनेजर पांडेय की उपन्यास-आलोचना और उपन्यास संबंधी लेखन का
परिचयात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।
अपनी आलोचना-यात्रा में मैनेजर पांडेय ने समय-समय पर उपन्यास, उपन्यास की
आलोचना और उपन्यास-विमर्श में रुचि ली है और लिखा भी है। उपन्यास पर उनके
लेखों का एक संकलन 'उपन्यास और लोकतंत्र' नाम से 2013 में आया। मैनेजर पांडेय
ने उपन्यास पर व्यवस्थित काम किया है, इसका प्रमाण यह पुस्तक है। इसके तीन भाग
हैं। पहले भाग में उपन्यास पर उनके सैद्धांतिक लेख हैं। दूसरे भाग में उनके
प्रेमचंद-केंद्रित लेख हैं। तीसरे भाग में हिंदी के कुछ उपन्यासों पर
समीक्षात्मक लेख हैं। जैनेंद्र कुमार के 'सुनीता', नागार्जुन के 'रतिनाथ की
चाची', रणेंद्र के 'ग्लोबल गाँव के देवता', शाद अजीमाबादी के 'पीर अली', संजीव
के 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' और मदन मोहन के 'जहाँ एक जंगल था' की विस्तृत और
सुचिंतित आलोचनाएँ उनकी व्यावहारिक आलोचना के उदाहरण हैं।
यह लेख मैनेजर पांडेय की उपन्यास-आलोचना के सैद्धांतिक पक्ष पर केंद्रित है।
मैनेजर पांडेय ने उन सभी सामाजिक शक्तियों, विचारधाराओं और भौतिक परिस्थितियों
की पड़ताल की है जो उपन्यास के उद्भव तथा विकास की कारक रही हैं। वे
साहित्य-रूपों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने और उनके सामाजिक विकास के
साथ चलने तथा उनके वैचारिक आधार के सिद्धांतों के हिमायती हैं। उनके अनुसार एक
विशेष साहित्य-रूप या विधा न केवल अपनी अंतर्वस्तु में विचारधारात्मक होती है
बल्कि अपनी संरचना में भी विचारधारात्मक होती है। वे लिखते हैं, "उपन्यास केवल
एक साहित्यिक रूप नहीं है, वह जीवन-जगत को देखने की एक विशेष दृष्टि है और
मानव-जीवन तथा समाज का एक विशिष्ट बोध भी।" इसी आधार पर वे महाकाव्य को
सामंती-युग का और उपन्यास को लोकतांत्रिक युग का साहित्यिक रूप में देखने वाली
मान्यता को स्वीकार करते हैं। पूँजीवाद के फलस्वरूप विज्ञान और टेक्नॉलॉजी तथा
मध्यवर्ग के उदय ने उपन्यास के लिए अनुकूल परिवेश तैयार किया। इस परिवेश ने न
केवल उपन्यास की संरचना को निर्धारित किया बल्कि आधुनिकता के रूप में उसकी
मूल्य-व्यवस्था और जीवन-दृष्टि को भी निर्धारित किया। इसलिए मैनेजर पांडेय
उपन्यास को मध्ययुगीनता के विरुद्ध आधुनिकता का साहित्य-रूप मानते हैं। उनके
अनुसार महाकाव्य मध्य युग का कला-रूप है तो उपन्यास आधुनिक काल का। महाकाव्य
मध्य युगीन संस्कृति का वाहक है तो उपन्यास आधुनिक संस्कृति का। वे उचित ही
मानते हैं, "उपन्यास मध्ययुगीनता के विरुद्ध आधुनिकता के विद्रोह की
अभिव्यक्ति है।" उपन्यास आधुनिक मनुष्य की नियति से बँध गया। वह आधुनिक मनुष्य
की अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम बना। मिलान कुंदेरा ने ठीक ही लिखा है कि
"आधुनिक काल के आरंभ से ही उपन्यास मनुष्य का हमेशा सबसे वफादार साथी रहा है।"
इस विद्रोही स्वभाव के कारण उपन्यास को सामाजिक-नैतिक निंदा, बहिष्कार और
राजनीतिक विरोध तथा सत्ताओं के दमन को झेलना पड़ा है। अपने विद्रोही स्वभाव के
कारण उपन्यास को समाज में स्वीकार्य होने में संघर्ष करना पड़ा है। अपने
उदयकाल से ही उपन्यास को तरह-तरह की सेंसरशिप का सामना करना पड़ा है। इसे
स्त्रियों के पढ़ने की चीज से लेकर चरित्रहीन और अनैतिक बनाने वाली चीज तक
कहकर घृणित सिद्ध किया जाता रहा है। धर्म और नैतिकता के रखने वाले इसे न पढ़ने
की सलाह देते रहे हैं। दुनियाभर के साहित्य-रूपों में जैसा विरोध उपन्यास का
हुआ वैसा किसी और रूप का नहीं। यह सब उपन्यास की परिवर्तन करने और प्रभावित
करने की क्षमता के कारण ही हुआ। मैनेजर पांडेय उपन्यास के इस संघर्ष को
रेखांकित करना नहीं भूलते। यह उनकी सूक्ष्म और समग्र आलोचना-दृष्टि का परिचायक
है। वे उपन्यास-विरोधी वैश्विक वातावरण के बारे में लिखते हैं, ''आधुनिक युग
की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि कला-रूप बनने के लिए उपन्यास को कठिन संघर्ष
करना पड़ा है। आधुनिक युग के प्रतिबंधित और तरह-तरह के सेंसरशिप के शिकार
साहित्य का अगर कोई ब्यौरा तैयार किया जाए तो उसमें सबसे अधिक संख्या
उपन्यासों की ही होगी। उपन्यास के विरोध के कई कारण रहे हैं। आरंभ से ही
उपन्यास की कला में निहित लोकतांत्रिक चेतना का विरोध सामंती चेतना की ओर से
होता रहा है। सोलहवीं सदी में स्पेन के सम्राट ने कानून बनाकर दक्षिण अमेरिका
में उपन्यास लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया था।''
उपन्यास धर्म की आलोचना और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति की वकालत करता है। वह
धार्मिक आस्था का विरोध कर समाज को वैज्ञानिक चेतना और अंधविश्वास-मुक्त बनाना
चाहता है। इसके लिए वह धर्मशास्त्रों, धर्मतंत्र के साथ-साथ पुरोहित वर्ग और
राजसत्ता के संबंधों का पर्दाफाश करता है। इस आधुनिक और मध्यकालीनता-विरोधी
स्वभाव के कारण उपन्यास को धर्मसत्ता, पुरोहित वर्ग और राजसत्ता का एक साथ
विरोध सहना पड़ा है। मैनेजर पांडेय सलमान रुश्दी के उपन्यास 'सेटेनिक वर्सेज'
पर ईरान के राष्ट्राध्यक्ष अयातुल्ला खुमैनी के जनलेवा फतवे का उदाहरण देकर यह
दिखाते हैं कि धर्मसत्ता का उपन्यास के प्रति किस तरह का अलोकतांत्रिक रवैया
रहा है। मैनेजर पांडेय अपने उपन्यास-विमर्श में धर्म और उपन्यास के इस समीकरण
पर विचार किया है। वे लिखते हैं, "उपन्यास ने आरंभ से ही धार्मिक कट्टरता और
नैतिक जड़ता का विरोध किया है, क्योंकि उपन्यास एक धर्मनिरपेक्ष आख्यान है।
दुनिया के अनेक बड़े उपन्यासकारों ने धार्मिक जड़ता और अंधविश्वास का विरोध
करते हुए अपने पाठकों को अंध आस्था से बचाते हुए विवेकशील बनाया है।
...उपन्यास ने धार्मिक मिथकों और पवित्र ग्रंथों की ऐतिहासिक तथा मनोवैज्ञानिक
छानबीन करने की कोशिश की है, यह भी उपन्यास और धर्म के बीच टकराहट का एक कारण
रहा है।"
मैनेजर पांडेय उपन्यास को लोकतंत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ पाते
हैं। उपन्यास को समझने के लिए वे निरंतर लोकतंत्र को संदर्भित करते हैं। उनकी
दृष्टि उस गतिकी को पकड़ने पर है जिससे लोकतंत्र का उद्भव और विकास होता है और
लोकतंत्र की एक सहधर्मी और सहयोगी लोकतांत्रिक विधा के रूप में उपन्यास सामने
आता है। वे लोकतंत्र और उपन्यास के विकास को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते
हैं। आधुनिक काल में लोकतंत्र और उपन्यास एक ही प्रक्रिया की उपज हैं क्योंकि
दोनों का समय एक ही है। मैनेजर पांडेय इस तथ्य का उपयोग लोकतंत्र और उपन्यास
के संबंधों की व्याख्या के लिए आधारशिला के रूप में करते हैं।
उपन्यास और लोकतंत्र के संबंधों की व्याख्या करते समय मैनेजर पांडेय दोनों
अवधारणाओं को व्यापक अर्थों में लेते हैं। उनके लिए उपन्यास और लोकतंत्र की
निकटता का एक मूलभूत आधार यह है कि न लोकतंत्र केवल एक शासन-प्रणाली है, और न
उपन्यास केवल एक साहित्य-रूप। उपन्यास को वे एक जीवन-दृष्टि के रूप में लेते
हैं। इसके समर्थन में हमने उनकी मान्यता को संदर्भित किया है। इसलिए यहाँ हम
उनकी लोकतंत्र की अवधारणा को देखने जा रहे हैं। लोकतंत्र का अर्थ-विस्तार करते
हुए वे लिखते हैं, "उपन्यास और लोकतंत्र के संबंध पर विचार करते समय यह ध्यान
में रखना जरूरी है कि लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था और शासन-पद्धति ही
नहीं है, वह एक ऐसी मानसिकता भी है जो सहिष्णुता की संस्कृति, दूसरों का
सम्मान, दूसरों के अंतरों का स्वीकार, विचारों की अनेकता का आदर, अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता और संवाद की तत्परता विकसित करती है।" इसी आधार पर उपन्यास और
लोकतंत्र के मध्य गहरा संबंध बनता है। स्पष्ट है, दोनों के जीवन-मूल्य, दोनों
की विचारधारा और दोनों की संरचना में एकता है, साझापन है। इस साझेपन की वजह से
ही मैनेजर पांडेय दोनों को एक साथ रखकर देखने की हिमायत करते हैं क्योंकि इससे
उपन्यास को समझने की एक बहु-स्वीकृत दृष्टि मिलती है।
मैनेजर पांडेय उपन्यास को एक लोकतांत्रिक साहित्य-रूप मानते हैं। रूप और
अंतर्वस्तु दोनों रूपों में वे उपन्यास के लोकतांत्रिक चरित्र की व्याख्या और
विवेचन करते हैं। रूसी उपन्यास आलोचक मिखाइल बाख़्तिन के अध्ययन के आधार पर वे
उपन्यास में स्वरों की अनेकता को लोकतंत्र के अनुकूल प्रवृत्ति मानते हैं।
उनके अनुसार उपन्यास में बहुत-से पात्र होते हैं और ये पात्र केवल एक
जीवन-दृष्टि से नहीं चलते बल्कि अलग-अलग जीवन-दृष्टियों के प्रतिनिधि होते
हैं। एक कथा-सूत्र में बंधकर ये उपन्यास के शिल्प में एक साथ आते हैं और आपस
में संवाद करते हैं। यह उपन्यास के लोकतांत्रिक स्वभाव की वजह से ही संभव होता
है। यह लोकतांत्रिकता एक अच्छे उपन्यास की शर्त है। वे लिखते हैं, "अच्छे
उपन्यास में प्रत्येक पात्र की दृष्टि और स्वर की स्वतंत्र सत्ता होती है
जिससे उसकी मानवीय गरिमा और अर्थवत्ता का निर्माण भी होता है। बाख़्तिन ने यह
भी लिखा है कि उपन्यास की औपन्यासिकता उसकी संवादधर्मिता में होती है।"
लोकतंत्र से उपन्यास के निकट संबंध को स्थापित करने के बाद मैनेजर पांडेय
राष्ट्रवाद से उपन्यास के संबंध पर विस्तार से विचार किया है। इसकी वजह यह है
कि उपन्यास का उदय-काल लोकतंत्र की तरह ही राष्ट्र-राज्य का भी उदय-काल है।
पश्चिम में ये तीनों परिघटनाएँ लगभग एक साथ घटीं तथा साम्राज्य और
साम्राज्यवाद के सहारे पूरी दुनिया में फैलीं। अर्थात तीनों अंतर्संबद्ध हैं।
इसलिए उपन्यास की परिघटना को समझने के लिए लोकतंत्र के साथ-साथ राष्ट्रवाद से
भी उसके संबंध का विश्लेषण आवश्यक है। राष्ट्रवाद से उपन्यास के संबंध पर उनके
विश्लेषण का एक कारण रहा है उपन्यास को अनिवार्य रूप से राष्ट्रवाद से जोड़कर
देखने की परंपरा और प्रवृत्ति का खंडन करना। मैनेजर पांडेय लोकतंत्र की तरह
राष्ट्रवाद से उपन्यास के संबंध को निर्विवाद नहीं मानते हैं। बेनेडिक्ट
एंडरसन जैसे पश्चिम के कई आलोचकों ने उपन्यास को आधुनिक राष्ट्र के आख्यान के
रूप में पढ़ने की वकालत की है। इन आलोचकों के अनुसार उपन्यास नेशनल मेटाफर या
नेशनल अलेगरी है, लेकिन मैनेजर पांडेय इसे सही नहीं मानते हैं। उनकी स्पष्ट
मान्यता है, "वह राष्ट्रवाद का जितना पोषक है, उससे अधिक उसका आलोचक है।"
मैनेजर पांडेय राष्ट्रवाद और उपन्यास के संबंध को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की
प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं। उनके अनुसार यह मान्यता एक तो यूरो-केंद्रित है
दूसरे राष्ट्रवाद और उपन्यास के विभिन्न रूप हैं। सब प्रकार के राष्ट्रवाद से
सब प्रकार के उपन्यास का संबंध एक जैसा नहीं होता है। वे लिखते हैं, "उपन्यास
से राष्ट्रवाद के संबंध पर विचार करते समय यह याद रखना जरूरी है कि जैसे
राष्ट्रवाद के अनेक रूप हैं, वैसे ही उपन्यास भी कई प्रकार के होते हैं।
प्रत्येक उपन्यास हर प्रकार के राष्ट्रवाद का पोषक या रूपक नहीं होता।
ऐतिहासिक और व्यक्तिगत रोमांस के उपन्यास जिस तरह के राष्ट्रवाद के पोषक होते
हैं, वैसे राष्ट्रवाद से सामाजिक यथार्थवाद के उपन्यासों का स्थायी विरोध होता
है। रोमांसधर्मी उपन्यासकारों में वर्तमान के बोध की जगह अतीत की स्मृति या
भविष्य की कल्पना अधिक होती है। उनकी आख्यान की पूरी संस्कृति पुनरुत्थानवादी
राष्ट्रवाद की मदद करती है, जबकि सामाजिक यथार्थवाद के उपन्यास अपने समय और
समाज की सच्चाइयों के साक्षात्कार करते हुए मुक्तिधर्मी और अग्रगामी राष्ट्रीय
चेतना का निर्माण करते हैं।" वे राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और सिद्ध करते
हैं कि उपन्यास राष्ट्रवाद की विचारधारा में नहीं बँधा हुआ है। वे उपन्यास के
लोकतांत्रिक स्वभाव और लोकतंत्र से उसकी निकटता का जितना समर्थन करते हैं उतना
ही वे राष्ट्रवाद से उपन्यास की दूरी और उसके राष्ट्रवाद-विरोधी चरित्र को
सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इसका कारण यह है कि स्वभाव से मूर्ति-भंजक और
लोकतंत्र का पक्षधर उपन्यास राष्ट्रवाद को मुक्तिकारी विचारधारा नहीं मानता।
वह राष्ट्रवाद को प्रश्नांकित करता है। मैनेजर पांडेय राष्ट्रवाद के विपरीत
उपन्यास को मुक्तिकामी चेतना का साहित्य-रूप मानते हैं। उनके अनुसार
राष्ट्रवाद जहाँ शासक वर्ग को बचाता है वहीं उपन्यास शासक वर्ग के विरुद्ध
संघर्ष में जनता का साथ देता है।
मैनेजर पांडेय ने उपन्यास के समाजशात्र और समाजशास्त्रीय पद्धति से उपन्यास के
अध्ययन पर भी विस्तार से विचार किया है। वे मानते हैं कि साहित्य के
समाजशास्त्रियों के लिए उपन्यास सबसे अनुकूल साहित्य-विधा है "क्योंकि वहाँ न
तो कविता की तरह आत्मपरकता की फिसलन होती है और न नाटक के यथार्थ का मायालोक
होता है। उपन्यास की कला में मौजूद मनुष्य के समाज संबद्ध और इतिहास सापेक्ष
रूप को आसानी से पहचाना जा सकता है। वहाँ कल्पना में रची बसी जिंदगी की
वास्तविकता को आसानी से पाया जा सकता है।" यह सही है कि उपन्यास में, वह भी
यथार्थवादी उपन्यास में सामाजिक तथ्य ज्यादा स्पष्ट और मुखर रूप में आते हैं।
इसके अतिरिक्त उसमें वैचारिकता, विमर्श और मनुष्य की बौद्धिकता का रंग गाढ़ा
होता है, इसलिए साहित्य के समाजशास्त्र के अध्येता उपन्यास में अंतर्निहित
वैचारिक सूत्रों को पकड़कर सामाजिक तथ्यों को समाजशास्त्रीय-दृष्टि से
व्याख्यायित और विश्लेषित करते हैं और उसे समाजशास्त्र के सिद्धांतों को
आत्मसात करने वाली विधा के रूप में स्वीकार करते हैं।
समाजशास्त्रीय आलोचना-दृष्टि से उपन्यास के कला-रूप की उपेक्षा होती है।
मैनेजर पांडेय उपन्यास के समाजशास्त्रियों की इस प्रवृत्ति को गलत मानते हैं।
उनके अनुसार उपन्यास मूल रूप से एक कला-रूप है। उसे केवल सामाजिक अभिव्यक्ति
का एक रूप मान लेना ठीक नहीं है। लेकिन, वे उपन्यास को सामाजिक सत्य से
निरपेक्ष कला मानने की प्रवृत्ति को भी उचित नहीं मानते। वे समाजशास्त्रीय और
कलावादी अतिरेकों का खंडन करते हुए लिखते हैं, "रूपवादी आलोचक उपन्यास को लेखन
की एक कला कहते हैं और समाजशास्त्री उसे सामाजिक अभिव्यक्ति का एक रूप मानते
हैं। दोनों इस भ्रामक असमंजस के एक-एक छोर को पकड़कर उपन्यास की आलोचना के
क्षेत्र में रस्साकसी करते रहते हैं। उपन्यास का स्वभाव ऐसा है कि वह सामाजिक
यथार्थ की अभिव्यक्ति से भागकर उपन्यास नहीं रह सकता। लेकिन केवल सामाजिक
यथार्थ के कारण कोई उपन्यास कलात्मक कृति नहीं हो जाता। अगर ऐसा होता तो सभी
उपन्यासकार प्रेमचंद होते।" फिर भी, यहाँ उपन्यास के समाजशास्त्र की चर्चा का
महत्व इसलिए है क्योंकि इसके बहाने स्वयं उपन्यास की प्रकृति का पता चलता है।
यह पता चलता है कि एक साहित्य-रूप के रूप में उपन्यास सामाजिक यथार्थ को उसकी
जटिलता और समग्रता में प्रकट करता है। इसलिए उसकी अंतर्वस्तु पर विशेष ध्यान
दिया जाना चाहिए है।
मैनेजर पांडेय यथार्थवादी उपन्यास-दृष्टि के प्रबल समर्थक हैं। न केवल
उपन्यास-आलोचना में बल्कि अपने संपूर्ण साहित्य-चिंतन में वे यथार्थवाद के
पक्षधर आलोचक के रूप में सामने आते हैं। लेकिन, यथार्थवाद के समर्थक होने के
बादजूद वे न तो उपन्यास की विविधता के विरूद्ध उसकी एकरूपता के समर्थक हैं और
न ही यथार्थवाद को केवल एकवचनात्मक मानते हैं। वे उपन्यास और यथार्थवाद दोनों
के अनेक रूपों को स्वीकार करते हैं। राबर्ट ऑल्टर के हवाले से वे सभी प्रकार
के उपन्यासों को यथार्थरक मानते हैं। वे पुराने यथार्थवादियों की आलोचना करते
हैं जो यथार्थवाद के नाम पर उपन्यास के एक प्रकार को ही स्वीकार करते थे और
दूसरे प्रकार के उपन्यासों को खारिज करते थे। इसके साथ-साथ वे उन रचनाकारों का
भी विरोध करते हैं जो उपन्यास को हरहाल में यथार्थ और यथार्थवाद से अछूता रखना
चाहते हैं। वे इन दोनों अतिवादी छोरों को अस्वीकार करते हैं। उपन्यास और
यथार्थवाद के जटिल संबंधों को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं, ''इसका आशय यह है
कि यथार्थ की चेतना और अभिव्यक्ति की पद्धति बदलने से उपन्यास यथार्थ विरोधी
नहीं होता और यथार्थवाद का महत्व भी नहीं घटता। लेकिन यह भी एक सचाई है कि
पिछले पचास वर्षों में सारी दुनिया में उपन्यास के नए-नए रूपों का जो विकास
हुआ है, उसे पुराने यथार्थवाद के दायरे में रखकर समझना मुश्किल है, इसलिए
पुराने यथार्थवाद की दृष्टि और पद्धति से अलग हटकर लिखी गई रचनाओं को पतित
कहकर खारिज करने की मानसिकता से अब काम नहीं चलेगा।'' इस तरह हम देखते हैं कि
मैनेजर पांडेय की उपन्यास और यथार्थवाद की दृष्टि वैसी ही वैज्ञानिक और गतिशील
है जैसे कि स्वयं उपन्यास और यथार्थवाद हैं। इस दृष्टि से चलने पर दोनों एक
दूसरे को समृद्ध करेंगे।
हिंदी में उपन्यास-आलोचना की दशा पर रस्मी चिंता व्यक्त की जाती रही है लेकिन
उसके कारणों की पड़ताल पर कभी विशेष ध्यान नहीं दिया गया। निर्मल वर्मा ने
इसके कारणों पर सोचते हुए ठीक ही लिखा है, "हम भारतीय लेखक उस विधा के बारे
में बहुत कम सोचते हैं, जिसे स्वयं अपने सृजन के लिए चुनते हैं। हमारे लिए
'विधा' महज माध्यम है, लक्ष्य कुछ और है - साहित्य, समाज, दर्शन। इसलिए
'साहित्यिक' साहित्य की रचना करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि लेखक की नैतिकता
उसके विचारों में या उनकी अभिव्यक्ति की विभिन्न शैलियों में निहित नहीं होती,
उसकी नैतिकता इस बात में निहित होती है कि उसका अपनी विधा, अपनी भाषा के प्रति
क्या रुख है। दो शब्दों में कहें कि जिस 'चीज' को हम समाज की आलोचना का औजार
मानते हैं, खुद उस औजार का परीक्षण जरूरी नहीं समझते।" निर्मल वर्मा का आशय है
कि उपन्यास एक विदेशी विधा है। उपन्यास हमारे 'सांस्कृतिक अनुभव क्षेत्र' से
बाहर का वह मकान है जिसे हमारी जलवायु के अनुकूल नहीं बनाया गया है। जिसमें हम
लोग रहने लगे हैं, उसे अपनी जलवायु के अनुकूल बनाए बिना। उन्हें आश्यर्च होता
है कि भारतीयों ने इसे बिना परीक्षण के अपना लिया है। निर्मल वर्मा की यह
चिंता हर भारतीय सर्जक की चिंता रही है क्योंकि यह भारतीय अनुभव की विशिष्टता
के आधार पर अपने शिल्प की विशिष्टता की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
मैनेजर पांडेय के उपन्यास-विमर्श में भी इस प्रश्न पर विचार किया गया है।
विशेषरूप से 'भारतीय उपन्यास की भारतीयता', 'भारतीय उपन्यास और प्रेमचंद' और
'राष्ट्रवाद, उपन्यास और प्रेमचंद' जैसे निबंधों में वे इस संदर्भ में
तर्कपूर्ण चिंतन-मनन करते हैं। वे निर्मल वर्मा की तरह ही मैनेजर पांडेय भी
उपन्यास को एक विदेशी साहित्य-रूप मानते हैं और यह महसूस करते हैं कि उपन्यास
का ढाँचा भारतीय अनुभव और यथार्थ के अनुकूल न था। वे लिखते हैं, "उपन्यास का
अँग्रेजी ढाँचा चाहे जितना उत्कृष्ट हो, लेकिन वह एक औपनिवेशिक समाज के यथार्थ
और आकांक्षा की अभिव्यक्ति के लिए पूरी तरह अनुकूल न था। अँग्रेजी उपन्यास का
ढाँचा, जिन विचारधारात्मक प्रवृत्तियों से बना था, उसका यहाँ अभाव था। यहाँ
उपन्यास ही नहीं संपूर्ण साहित्य की रचना का संदर्भ और उद्देश्य यूरोप से
भिन्न था। इसलिए भारत में उपन्यास जब अनुकरण के दलदल से निकलकर अपनी स्वतंत्र
अस्मिता की खोज में लगा तो आख्यान की भारतीय परंपराओं की ओर मुड़ा।" उनके
अनुसार भारतीय उपन्यास का जन्म 'अभिशप्त स्थितियों' में हुआ।
इस कथन में उपन्यास की एक विदेशी साहित्य-रूप के रूप में पहचान, उसकी भारतीय
रचनाशीलता के लिए अपर्याप्तता के रेखांकन और उसके भारतीयकरण की प्रक्रिया की
खोज सब एक साथ है। निर्मल वर्मा उपन्यास की बिजातीयता और इस कारण उसकी
अपर्याप्तता को पहचानते हैं और उसे ज्यों-का-त्यों अपना लेने पर चिंता और
आश्चर्य प्रकट करते हैं लेकिन एक विदेशी फॉर्म के देशीकरण की प्रक्रिया पर
बिल्कुल ध्यान नहीं दिया है। अपनी तरह से मैनेजर पांडेय भी यह सब कहते हैं
लेकिन निर्मल वर्मा के आगे जाकर वे उपन्यास के भारतीयकरण की प्रक्रिया की खोज
और व्याख्या भी करते हैं। उन्होंने देशी आवश्यकताओं के अनुरूप उपन्यास के
भारतीयकरण या अनुकूलन की सुदीर्घ और पीड़ादाई प्रक्रिया अर्थात भारतीय उपन्यास
के आत्मसंघर्ष पर गहराई और व्यापकता से विचार किया है। वे आज भारतीय उपन्यास
की एक 'स्वतंत्र अस्मिता' को स्वीकार करते हैं। उनका आशय यह है कि हिंदी के
लेखकों ने औपनिवेशिक समय में अँग्रेजी उपन्यास के जिस ढाँचे को वाया बाँग्ला
अपनाया था उसे अपनी जातीय आवश्यकताओं और साहित्यिक परंपराओं तथा वैचारिक
परिस्थितियों के अनुकूल बनाने का भरसक प्रयास किया इससे भारतीय उपन्यास को एक
स्वतंत्र पहचान मिली। आज उपन्यास-संसार में भारतीय उपन्यास की एक ठोस अवधारणा
है। भारतीय उपन्यास न केवल अंतर्वस्तु की दृष्टि से बल्कि रूप की दृष्टि से भी
भारतीय हुआ है। हमारे पास इस बात का कोई हिसाब नहीं है कि उपन्यास के शिल्प को
अपनाकर भारतीय रचनाशीलता ने क्या खोया और क्या पायाॽ लेकिन, उपन्यास की
सकारात्मक भूमिका की चर्चा जरूर देखने को मिलती है। इस चर्चा में एक आशय या
निष्कर्ष यह भी निहित होता है कि भारतीय रचनाशीलता यदि उपन्यास के ढाँचे या
शिल्प में घुटन महसूस करती और उसे अपर्याप्त पाती तो उससे पल्ला झाड़ ली होती।
मैनेजर पांडेय उपन्यास की विदेशी विधा को स्वीकार करने की विडंबना, उसके
भारतीयकरण की प्रक्रिया पर विचार करने के साथ-साथ भारत में उसकी सकारात्मक
भूमिका पर भी प्रकाश डालते हैं। उनके अनुसार भारतीय उपन्यास ने साम्राज्यवाद,
जातिवाद, पितृसत्ता और सांप्रदायिकता-विरोधी तथा लोकतांत्रिक चेतना के
मुक्तिकामी आख्यान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे लिखते हैं,
"उपन्यास ने सामाजिक व्यवस्थाओं, विचारधाराओं, पितृसत्ता से उपजी पराधीनताओं,
जाति व्यवस्था, गुलामी, नस्लभेद, उपनिवेशवाद, आधिपत्य, अस्मिता,
सांप्रदायिकता, लोकतंत्र और यहाँ तक कि स्वयं अपने स्वरूप के बारे में प्रश्न
करते हुए पाठकों की चेतना और सहानुभूतियों का विस्तार किया है।"
लेकिन, वे उपन्यास के रूप में एक विदेशी रूप को स्वीकार करने से होने वाली
हानियों पर विचार नहीं करते। हिंदी में सब जगह यही स्थिति है। हानियों की
चर्चा से बचने की संस्कृति का एक अर्थ यह लगाया जा सकता है कि असल में कोई
हानि हुई ही नहीं। प्रश्न उठता है कि यदि कोई हानि नहीं हुई तो उपन्यास के
शिल्प को अपनाने वाले आरंभिक रचनाकारों की प्रशंसा करने के स्थान पर, उसे
अपनाने की मजबूरी और विडंबना की चर्चा और चिंता प्रकट करने का क्या तुक है?
असल में, सैद्धांतिक स्तर पर अपनी परंपरा से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न
कला-रूपों की तुलना में विदेशी कला-रूपों की निरर्थकता और उसे अपनाने के घाटे
को स्वीकार करना एक बात है और कुछ दिनों बाद उसके द्वारा पहुँचाए गए घाटे की
पड़ताल करना बिल्कुल दूसरी बात है। इसमें अधिक श्रम, शोध और साहस के साथ-साथ
उपनिवेश-विरोधी चेतना की जरूरत पड़ती है, जिसकी कमी की शिकायत हिंदी में आम
बात है।
मैनेजर पांडेय उपन्यास की शक्ति, सामर्थ्य और प्रासंगिकता को निर्भ्रांत रूप
से स्वीकार करते हैं। एक मुक्तिधर्मी आख्यान के रूप में उनकी उपन्यास की सत्ता
और सार्थकता में अडिग आस्था है। वे उत्तर आधुनिकतावादियों के उपन्यास के
वर्तमान और भविष्य के बारे में अंतवादी घोषणाओं को खारिज करते हैं और उपन्यास
के अस्तित्व को मानव जाति के अस्तित्व के साथ जोड़कर उसके भविष्य को उज्ज्वल
देखते हैं। उनके अनुसार ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि उपन्यास का आधार आख्यान है
और आख्यान मनुष्य के अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। उपन्यास के उज्ज्वल भविष्य
की घोषणा करते हुए वे लिखते हैं, "जैसाकि रॉबर्ट स्कोल्स ने कहा है, भाषा की
तरह ही आख्यान भी मानव-अस्तित्व की बुनियादी विशेषता है, इसीलिए उपन्यास का
अंत मनुष्य और लोकतंत्र के अस्तित्व के अंत के साथ ही संभव है।" लेकिन, आख्यान
पर आधारित होने मात्र से उपन्यास के चिरायु या मृत्युंजय होने की भविष्यवाणी,
भविष्यवाणी ही है। यदि आख्यान ही किसी साहित्य-रूप के कालजयी होने की शर्त
होता तो न महाकाव्य का अंत होता और न ही आख्यान आधारित अन्य साहित्य-रूपों का।
असल में, यह सिद्ध करना कठिन है कि साहित्य की कौन-सी विधा आख्यानधर्मी है और
कौन-सी आख्यानमुक्त है। हम देखते हैं कि इसके बावजूद साहित्य-रूपों में
परिवर्तन हुआ है। स्वयं उपन्यास परिवर्तित होता रहा है। सामाजिक परिवर्तन या
उत्पादन के साधनों में परिवर्तन के साथ साहित्य-रूपों में परिवर्तन होने का
सिद्धांत यदि असत्य नहीं है तो उपन्यास के किसी प्रशंसक के लिए भी उसको
मृत्युंजय घोषित करना न केवल कठिन होगा बल्कि व्यावहारिक रूप से इस सिद्धांत
को ही खारिज करना माना जाएगा।
मैनेजर पांडेय ने उपन्यास को अन्य साहित्यिक विधाओं से श्रेष्ठ और विशिष्ट
सिद्ध करने के क्रम में उसकी अन्य साहित्यिक विधाओं से तुलना की है। उन्होंने
उपन्यास की कविता, महाकाव्य, नाटक, प्रगीत से भिन्नता और श्रेष्ठता सिद्ध की
है। जबकि टेरी ईगल्टन उपन्यास को एक वर्णशंकर विधा मानते हैं। वे लिखते हैं,
"यह जितना विधा है उससे अधिक विधा-विरोधी है। या दूसरी साहित्यिक विधाओं के
गुणों को समाहित कर उन्हें एक साथ रख देता है। आपको उपन्यास में महाकाव्य,
पुरोहिताई, व्यंग्य, शोकगीत, त्रासदी, अन्य साहित्य विधाओं के साथ काव्य और
नाटकीय संवाद भी मिल सकते हैं।" मैनेजर पांडेय ने उपन्यास की विधागत
वर्णसंकरता पर विचार नहीं किया है। उपन्यास को एक विधा के रूप में समझने के
लिए यह उचित होता कि वे उपन्यास की अन्य साहित्यिक विधाओं से दूरी के साथ-साथ
उनसे निकटता भी दिखाते। यदि ऐसा हुआ होता तो संभवतः उपन्यास को श्रेष्ठ सिद्ध
करने के लिए उन कामों को श्रेष्ठ सिद्ध करने के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती,
जिन्हें उपन्यास करता है। उनके उपन्यास-विमर्श की विशेषता यह है कि वे उपन्यास
को एक आख्यानकर्त्ता से अधिक एक विमर्शकार के रूप में देखते हैं। वे उपन्यास
की तात्विक विवेचना की बजाय उसकी वैचारिक और बौद्धिक भूमिका को रेखांकित करने
में अधिक रुचि लेते हैं। इसलिए वे उपन्यास को लोकतंत्र, राष्ट्रवाद,
उपनिवेशवाद, इतिहास, समाजशास्त्र जैसी अवधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में रखकर
देखते हैं। स्पष्ट है, वे आधुनिक वैचारिक और बौद्धिक-जगत में उपन्यास को
आख्यान के उपकरण के रूप में कम और विमर्श के एक उपकरण के रूप में अधिक लेते
हैं।